हेनसांग की भारत यात्रा
हेनसांग की भारत यात्रा -
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हेनसांग का चित्रणहेनसांग, जिसे ह्वेनसांग भी कहा जाता है, एक प्रसिद्ध चीनी बौद्ध यात्री, विद्वान और अनुवादक थे, जो तांग वंश के दौरान भारत की यात्रा पर आए थे। उन्होंने 7वीं शताब्दी में लगभग 629 ईस्वी से 645 ईस्वी तक भारत की यात्रा की, जहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म, दर्शन, और शिक्षा का अध्ययन किया। उनके यात्रा वृत्तांत, जिसे "द ग्रेट तांग रिकॉर्ड्स ऑन द वेस्टर्न रीजन" (या चीनी में "Da Tang Xiyu Ji") के नाम से जाना जाता है, में भारतीय समाज, संस्कृति, और धार्मिक स्थलों का वर्णन किया गया है।
हेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया, जो उस समय का एक प्रमुख बौद्ध शिक्षा केंद्र था। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अनेक भारतीय राजाओं से मुलाकात की और बौद्ध ग्रंथों का संग्रह किया, जिन्हें बाद में उन्होंने चीन में अनुवाद किया। हेनसांग का यात्रा विवरण आज के इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्राचीन भारत के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का एक अमूल्य स्रोत है।
ईसवी पूर्व मे चौथी शताब्दी मे सिकन्दर के आक्रमण एवं ईसा के पश्चात् सातवी शत्ताब्दी मे चीनी तीर्थयात्री हेनसांग की यात्राओं का विवरण भारत के प्राचीन इतिहास मे उतना ही रुचि एवं महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जितना सिकन्दर महान की साहसिक यात्राओं का।
हेनसाग तोसरा चीनी यात्री था जो सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ मे सन् ६२१ मे भारत मे आया और १५ू साल तक भारत के भि्न-भिन्न स्थानो को देखता हुआ तथा अनेक विद्यालयो मे विद्याध्ययन करता हआ उसने जो कुछ देखा, पढा और सुना,उस समय के भारत की सच्चो अवस्था का जो वर्णन उसने किया है, उससे सातवी शताब्दी के भारतीय इतिहास की सच्ची जानकारी प्राप्त होती है । अपने लेख के प्रारंभिक अंश मे उसने हिन्दुओ के शिष्टाचार, उनकी कला तथा उनकी परम्पराओं का वर्णन किया है|
हेनसाग की यात्राओ का समय ६२९ ईसवी से ६४५ ईसवी तक था । इस काल मे उसने काबुल तथा कश्मीर से गड्गा एवं सिन्घु नदियो के मुहाने तक तथा नेपाल से मद्रास के समीप काचीपूर तक के सम्मूर्णं देश के बड़े-बड़े नगरो की यात्रा कीथरी । तीर्थ यात्री ने ६३० ईसवी के मई माह के अन्तिम दिनो मे वामियान के मार्ग से काबूल मे प्रवेश किया था और अनेक परिभ्रमणो एवं लम्बे विश्राम के पश्चात आगामी वर्ष के अप्रेल मे ओहिन्द के स्थान पर सिन्धु नदी को पार किया था। उसने बौद्ध धर्मं की पवित्र यात्रा के उद्देश्य से कई मास का समय तक्षशिला में व्यतीत किया और तत्पश्चात कश्मीर की ओर प्रस्थान किया जहाँ उसने अपने धर्म की अधिक महत्वपूर्ण पूस्तको के अध्ययन हेतु दो वर्ष व्यतीत किये । पूर्व दिशा की यात्रा मे उसने साँगला केह प्डहरो की यात्रा की जो सिकन्दर के इतिहास मे अत्यन्त प्रसिद्ध है । उसके बाद चिन्नापट्टी मे चौदह मास एवं जालन्धर में चार मास धामिक आध्ययन हेतु व्यतीत कर लेने के पश्चात उसने सनू ६३५ ई० मे सतलज नदी को पार किया।
तत्पश्चात् द्वाव मे सखिला, कन्नौज तथा कौशाम्बी के प्रसिद्ध नगरों की यात्रा के उद्देश्य से उसने गङ्गा नदी को पुनः पार किया और उसके पश्चात् अवध मे अयोध्या तथा धावस्ती के प्रसिद्ध स्थानो पर अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए उत्तर की ओर मुड़ गया। वहीं से उसने कपिलवस्तु तथा कुशीनगर के स्थानो पर वुद्ध के जन्म एवं निर्वाण के स्थानो की याश्रा हेतु पुनः पूर्व दिशा का अनुकरण किया और वहाँ से वना-रस के पवि्र नगर की अर गया, जहुाँ बुद्ध ने अपने धर्म की प्रथम शिक्षा दो थी।
इसके बाद मगध को प्राचीन राजधानियो कुशागरपुर तथा राजगृह् के प्राचीन नगरो तथा सम्पूर्ण भारत मे प्रसिद्ध स्थान नालन्दा के महान मठ मे गया जहाँ उसने सस्कृत भाषा के अध्ययन हेतु पन्द्रह मास व्यतीत किया । इसके पश्चात् सन् ६४० ई० के प्रारम्भ मे इस स्थान से चलकर वह दक्षिण दिशा मे द्रविड़ देश की राजधानी काची-पुर अथवा कश्जीवरम पहुँचा । फिर उत्तर दिशा की ओर चलकर महाराष्ट्र से होते हुए नर्मंदा नदी पर स्थित भढ़ौच नगर पहुँचा, जहाँ से वह उज्जैन, मालवा तथा वलभीके अन्य छोटे-छोटे राज्यों में होता हुआ वह सन् ६४१ के अन्त मे सिन्ध तथा मुल्तान पहुँच गया एव सिन्ध नदी को पार करके वह कपिसा के राजा के साथ सन् ई० के लगभग लमगान की ओर चला गया । यहाँ से पत्वशीर घाटी तथा भावक दरें से होते हुये वह अपने स्वदेश की अर का मार्ग पकडकर सन ६४४ ई० के जुलाई माह के अन्त तक अन्देराव पहुँच गया। अनेक वर्फोले दर्रों को वह सरलतापूर्वक पार करता हुआ, अपने महान उ्देश्य की पूति करके काशगर तथां यारकन्द होता हुआ वह सन् ६४५ ई० के अन्त मे अपनी मातृ-मूमि चौन देश मे प्रवेश करके अपने घर सकुशल पहुँच गया ।
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